होली अंतस चेतना का उत्सव – प्रोफेसर पी.के.आर ्य

‘कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है।
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में
पानन में पीक में पलासन पगंत है।
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में
देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन में बगरयो बसंत है।।’
होलिकोत्सव एक छलांग है मानवीय चेतना ,की उत्सवधर्मिता की। अंतस में चटकती कलियों के सुवास की।जीवन के केंद्र से अस्तित्त्व की परिधि तक रंगों के विस्तार की।होली एक पर्व है जो पर्व न होकर एक जीवन दर्शन है, जिसके मूल में बहुत सूक्ष्म और सघन जीवन कीमिया अंकुरित है।इस पर्व की पृष्ठभूमि में मानवीय मन के अनेक प्रश्नों के समाधान निहित हैं अनेक समस्यायों के निदान छिपे हैं। आनंद के क्षितिज पर खिंचते नए इंद्रधनुष जीवन के कैनवास पर सुखद चित्र उकेरतें हैं।
हिंदुओं की समूची देशना अत्यंत वैज्ञानिक और गहरे जीवन मूल्यों से आपूरित है। उन मूल्यों की समग्र समझ के अभाव और अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु की गई वंचनाओं ने इन अर्थों के अनेक बार अनर्थ भी किये हैं लेकिन आधारभूत मूल्य आज भी अक्षुण्ण है और सदा सर्वदा रहने भी वाले हैं। फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को होलाष्टक लगते हैं। असल मे होलाष्टक आठ दिनों के पर्व का एक ऐसा समुच्चय है , जिसमें जीवन दुविधा के असंख्य प्रश्न स्वतः ही तिरोहित होते चले जाते हैं। इसी दिन अन्नपूर्णा अष्टमी और लक्ष्मी तथा सीता अष्टमी के मनाए जाने की भी परंपराएं हैं।इन आठ दिनों में जो पूर्णिमा तक यानी होली और रंगोत्सव तक विशेष और अनूठे त्यौहारों की एक लंबी सूची है।
वस्तुतः जब हमने शिक्षित समाज की कल्पना करके विद्यालयों की रूपरेखा तय की तो समझा था कि हम समग्र रूपेण शिक्षा को उपलब्ध हो सकेंगे ! लेकिन आज जब इसके समग्र योगदान का महत्त्व और भूमिका को आत्मसात करते हैं तो एकतरफा प्रगति की उछाल प्रतिबिंबित होती है। हम पढ़ लिख तो गए लेकिन जीवन मूल्यों की असली खाद पानी को भूल गए। इसी खाद पानी से आज भी अनेक गांवों में जो संस्कारों के वृक्ष लहलहा रहे हैं , वहां जीवन शहरी बनावटीपन से इतर कुछ चैन और सुकून के पल बिता रहा है।
‘सब कुछ ले आया शहर में मैं,
गांव में छत पर टंगा चाँद छूट गया।’
प्रदूषण से भरे शहरों में मूल्य ही मैले हुए हों ऐसा नहीं है ,अपने चाँद सूरज भी मटमैले होते जा रहे हैं।धूल और धुंवें में ढके चाँद सूरज अपने स्वच्छ स्वरूप में देखने हों तो आज भी गाँव भले हैं।चाँद का हमारे मन से गहरा ताल्लुक है। मन का सामान्य स्थान सिर को मानकर चला गया ,इसी को प्रतीक स्वरूप में समझाने के लिए भगवान शिव के मस्तक पर चंद्रमा विराजित हैं ।
होलाष्टक से पूर्णिमा तक चाँद की रोशनी में फाग खेले जाते थे। यह अवधि आयुर्वेद के अनुसार उस समय पड़ती है, जब चंद्रमा की किरणों का सेवन हमें वर्ष भर मानसिक रोगों से बचाता है। चंद्रमा की किरणों से झरने वाले सोम से मन हर्षित होता है। जब स्त्रियां सामूहिक रूप से फाग खेलती थी और लोकगीतों के माध्यम से अपने मन के उदगार अभिव्यक्त करती थी ,तो परस्पर स्नेह और माधुर्य का संचार होता था। उधर शाम को चौपालों पर गाये जाने वाले राग और फागगीत भी बहुत से सरोकारों की चाबियाँ थे। एक दूसरे के विचारों को जानने समझने और उनके साथ संग खड़े होने से समाज में एकता और भाईचारा बढ़ता था। इन्हें तथाकथित प्रगति लील गयी। अब इनमें रुचि रस रखने वाले को पिछड़ा और गंवार समझा जाता है। फिर ज़्यादा तरक्की करके जब आप बड़े आदमी हो जाते हैं और रोग भी बड़े बड़े पकड़ लेते हैं ,तब डॉक्टर्स आपको सलाह देते हैं ,इन्हें किसी ऐसे स्थान पर ले जाएं , जहां थोड़ा इनका मन बदल संकें! भाई आपने अपना जीवन ही बदल लिया अब कुछ भी बदल लो ,मन कैसे बदलेगा ?
बरसाने में होली की प्रसिद्ध परंपराएं और लोकरीतियाँ हैं।उनके गहरे मनोवैज्ञानिक निहितार्थ हैं।भगवान शिव द्वारा उवाचित ‘शिव सूत्र’ में ध्यान की 112 विधियों का उल्लेख किया गया है। इनमें लगभग बीस विधि ऐसी हैं जो मन से सबद्ध हैं। एक विधि है – ‘ मनरेचन’ इसे अंग्रेज अब ‘कैथार्सिस’ के नाम से सीख रहे हैं।इसमें मन के ऐसे खट्टे मीठे संवेगों को तिरोहित करने की विधि हैं, जिन्हें आप करना तो चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते। होली इसी को निष्काषित करने का सबसे बड़ा और सबसे सहज पर्व था। बरसाने की लट्ठमार होली इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। अभिव्यक्ति के नकारात्मक तरीकों में हिंसा एक सामान्य तरीका है। लेकिन तानों उलाहनों में घिरा मन हिंसा तो करना चाहता है लेकिन माधुर्य के साथ। लठमार होली ऐसे ही हिंसात्मक माधुर्य का विरेचन है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इसके गहरे मनोवैज्ञानिक परिणाम हैं।बरसाने के पूरे क्षेत्र में पिछले 25 वर्षों में एक भी स्त्री के घरेलू उत्पीड़न की एक भी रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई है। वर्ष भर साहब ने सताया अब हफ्ते भर हम , और मन से जीने वाली औरत का हिसाब पूरा हुआ।
सर्दियां समाप्त होते ही सुहानी वासंती हवाएं वातावरण में एक मादकता घोलती हैं।कामदेव के रति के साथ गहरे साहित्यिक संदर्भ भी इस अवधि के मनोप्रभावों को उदघाटित करते हैं।वसंत में पेड़ पौधे नए परिधान पहनते हैं , तितलियों और कीट पतंगों का परिभ्रमण प्रवाह में होता है।कुछ ऐसे भी सूक्ष्म कीट हैं जो सामान्य दृष्टि से ओझल रहते हैं। ये हमारे लिए श्वसन संबंधी , यानी फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों और त्वचा रोगों के संवाहक होते हैं।जब पूर्णिमा की संध्या में गांव गांव गली गली और हर चौराहे पर होलिका दहन होता है, तब इन संक्रामक रोगाणुओं के समूल नष्ट होने की प्रक्रिया भी सम्पन्न हो जाती है। पहले सभी लोग अपने घरों से कपूर और कुछ लौंग लेकर होलिका दहन को जाते थे। अनेक स्थानों पर गेहूं की बालियाँ और गूगल तथा जावित्री भी जलाए जाने की परंपरा थी , पूरा वातावरण सुगंधित , निरोगी ,स्वास्थ्यप्रद और ईशयुक्त बनाने में हमारा योगदान था। आज हम कहाँ खड़े हैं ये भी देखना चाहिए ? पुराने टायर और प्लास्टिक की बोतलों को जलाकर हम लोगों को मारने पर उतारूँ हैं।
रंग की बात सुन लो ! तारकोल और केमिकलों से बदरंग चेहरे देखकर, रंगमय जीवन की कल्पना करने वाले ऋषि अपना माथा पीट रहे होंगे। टेसू के फूलों , चंदन के इत्र और गंधक मिश्रित प्राकृतिक रंगों से होली खेलने का रिवाज था। चर्म रोगों से मुक्ति और परस्पर प्रेम का आदान प्रदान लेकिन विकृत होते स्वरूप ने पूरी मान्यताएं ही जड़ों से हिला दीं हैं। घरों में सूजी , बेसन और गेंहूँ के आटे में गौ घृत मिलकर गुंजियाँ और नमकीनों को बनाये जाने की बात बीते कल का स्वाद हो गयी है। मैदा और नूडल्स के नीचे दबा बचपन कृत्रिम पर्वों की बीमार यात्राओं में शामिल है।
हुलियारों की टोलियां नदारद हो रहीं हैं पियक्कड़ों के गिरोह बढ़ते जा रहे हैं। होली पर शराब के प्रयोग का कोई पौराणिक तथ्य कहीं नहीं मिलता। पता नहीं शराब इस त्यौहार का फैशन कैसे और कब बन गयी। लोगों को आड़ और बहाने चाहिए , त्यौहार तो एक ढाल का काम करता है। इन्हीं बदतमीजियों से आजिज आकर बहुत से लोग इस त्यौहार से बचते हैं। हिन्दू पर्व परस्पर प्रेम के, सहयोग के, सांझेदारी के और समग्र सरोकारों के पर्व हैं; इनकी विरासत को सहेजिये ताकि आने वाली पीढियां, इन पर्वो को जी संकें ,उनके वास्विक मूल्यों के साथ। रंग भी जमे, रस भी हो और आनन्द के अवसर भी यहीं हर पर्व का वास्तविक मंतव्य है। धर्म के आकाश पर एक ऐसा भी चंद्रमा उदित हुआ जिसने उत्सव और उमंग को ही प्रभु भक्ति की नौका बनाया। परम उल्लास और आनंद की लहरों पर सवार होकर जो परमात्मा तक को रंग गया , ऐसे चैतन्य महाप्रभु को भी उनकी जयंती पर नमन।
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