जब वैलेंटाइन आता है,
दिल बाग-बाग हो जाता है,
सूने वीराने पतझड़ में,
जैसे बसंत छा जाता है,
रिमझिम सी घटा बरसती है,
इस माघ-पूस के सावन में,
मन किशन-कन्हैया हो जाए,
दीवानों के वृंदावन में.
करते हैं याद सभी वो दिन
जब साथ घूमने जाते थे,
हिलते-डुलते उन झूलों में,
वो भी पूरे हिल जाते थे,
पर पास में कोई रहता था तब,
झूठी हिम्मत शो करते,
अंदर से दिल घबराता था,
बाहर से हो-हो करते.
कुछ ऐसे वीर अभी भी है,
जो याद संजोए रहते है,
गत साल मिला जो सिला इन्हे,
बस उसमें खोए रहते है
इतने लाचार हैं आदत से
अब भी ये पगला जाते हैं,
गैरों की हरकत देख-देख,
खुद हरकत में आ जाते हैं
दिल की धड़कन मत ही पूछो,
दुगुने स्पीड से भाग रहा,
सारी दुनिया जब सोती है,
आशिक़ परवाना जाग रहा,
करवट बदले बिस्तर पर बस,
नैनों में नींद न रुकती थी,
खुद में उलझे, खुद में सुलझे,
यह देख चाँदनी हँसती थी,
यह प्यार का मारा आशिक़ है,
अपने ही ऊपर ज़ोर नही,
कितने झटके अब तक खाए,
फिर भी देखो कमजोर नहीं,
अब भी स्कूटर लेकर के,
मंदिर के पीछे जाता है,
बस एक झलक उसकी पाकर,
मन ही मन खुश हो जाता है.
© हास्य कवि विनोद पांडेय