कल दोपहर मेट्रो की सीढ़ियों पर दौड़ते हुए एक मूर्धन्य साहित्यकार पर मेरी नजर पड़ी ।वो भागते हुए भी साहित्यकार ही लग रहे थे | उनके हाथ में उन्हीं का लिखा हुआ एक महाकाव्य था जो शायद आज के बाद किसी और के आलमारी की शोभा बढ़ाने वाला है । महाकाव्य इसलिए कहा कि उसमें लिखी कविताएँ असाधारण थी । उनकी कविताओं में काव्य के सारे तत्व मौजूद थे बस दिखायी नहीं देते थे ।उनसे मिलने वाला या यूँ कहें उनको दिख जाने वाला कोई भी व्यक्ति बिना उस महाकाव्य को लिए घर नहीं जा सकता ।मेरे पर उनका विशेष प्रेम था,अब तक उस महाकाव्य की तीन प्रतियाँ घर ला चुका हूँ ।हर बार सप्रेम भेट कर देते और मैं उनके सप्रेम भेट को मुस्कुराते हुए स्वीकार कर लेता क्योंकि मैंने सुन रखा था कि शीश तोड़ों ,पत्थर तोड़ों पर किसी का दिल मत तोड़ों ।
खैर ,मेट्रों स्टेशन पर उनको दूर से देखते हुए मैं उनसे और दूरियां बनाते हुए मेट्रों की प्रतीक्षा में खड़ा हुआ । मेट्रों से ज्यादा मेरा ध्यान इस बात पर था कि महोदय जी मुझको देख न लें ।मेट्रों आयी ।चूँकि मैं भीड़ के बीचोबीच खड़ा था अतः बिना किसी प्रयास के भीड़ द्वारा अंदर ठूस दिया गया ।मुझे केवल हाथ-पैर बचाने की मेहनत करनी पड़ी और मैं मेट्रों में अंदर आ गया ।मगर यह क्या ,काटो तो खून नहीं,वो इसलिए की सामने नजर पड़ी तो वृद्ध एवं विकलांग सीट पर साहित्यकार महोदय चश्मा साफ करते दिखाई पड़े ,मुझे देखते ही वो चीख पड़े इससे यह भी साफ़ हो गया था कि चश्मा लगाना उनके पर्सनालिटी का एक हिस्सा है ।
मैंने उन्हें चुप कराते हुए उनके नजदीक पहुँचा तो वो भी मुझे एडजस्ट करने के लिए मेहनत करने लगे,थोड़ा जगह बना कर मुझे जबरदस्ती बिठाने की उनकी कोशिश तब बेकार चली गयी जब बगल में बैठी एक मैडम जी झटपट अपने शौहर का हाथ पकड़ खींच कर बिठा लिया ।फिर क्या करते साहित्यकार महोदय जी भी कुछ लाज-शर्म की बात करके चुप हो गए ।मैं उनकी बातों में रूचि न लेने का बहाना कर रहा था पर वो बातचीत के जुगाड़ में थे ।मुझे भी पता था कि वो ज्यादा देर रुक नहीं सकते थे ,क्योंकि दो साहित्यकार एक जगह हो और दोनों मौन रहें ऐसा संभव ही नहीं ।थोड़ी देर इधर उधर देखते रहे फिर बोल ही पड़े ,कि भाई साहब ,मेरी किताब आप को कैसी लगी । अब मैं क्या बोलूँ क्योंकि मैंने तो आजतक उनकी महाकाव्य के एक पन्ना नहीं पलटा । "बहुत शानदार लगी "इसका विशेषण ढूढ़ ही रहा था कि वहीं झट से बोल पड़े,अच्छी ही लगी होगी ,आजतक जिसने भी पढ़ा सभी ने तारीफ ही की है । मैंने मुँह खोल कि वो फिर बोल पड़े कि जुलाई में दूसरी किताब भी आ जाएगी ,विमोचन में आप को रहना है । विमोचन से मुझे याद आया कि इनके पहले विमोचन में मैं गया था ,मुश्किल से दस लोग आये थे ,फोटों खींचते वक्त तो जलपान वाले लड़कों को भी किताब पकड़ाकर खड़ा कर दिए थे । पाँच मिनट में विमोचन हो गया था पर बन्दे ने डेढ़ घंटे तक सबको कविताएँ सुनाई,जलपान के नाम पर चाय पकौड़े तो आये थे पर इनकी कविता सुनकर सब पेट में जाने से मुकर गए और मुँह तक आकर बाहर आने की जिद करने लगे मैंने तो उनकी जिद तुरंत पूरी कर दी थी ,बाकि लोगों ने शायद बाद में की होगी ।
ऐसी सुखद पल मुझे पचते नहीं हैं अतः मैंने निर्णय लिया कि दोबारा ऐसे कार्यक्रमों में नहीं जाऊँगा और ये भाई साहब दोबारा निमंत्रण दे रहे हैं । खैर मैंने "देखा जायेगा" कह कर बात को टाल दिया । इससे पहले कि वो फिर मुँह खोलते मैंने ही पूछ लिया ,कहाँ जा रहे हो आप ? । "एक साहित्यिक कार्यक्रम में " वो मुस्कुराते हुए बोले।मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मुझे ही नहीं बल्कि शहर के एक चौथाई साहित्यकारों पता है कि ये नित्य ही किसी न किसी साहित्यिक कार्यक्रम में ही जाते हैं ।मैंने बात को आगे बढ़ाया और पूछा की कैसा कार्यक्रम है । उन्होंने शहर के एक बड़े साहित्यकार का नाम लेते हुए बताया कि उन्होंने एक विचार गोष्ठी रखी है जिसमें शहर ही नहीं बल्कि देश के बड़े बड़े साहित्यकार व्याख्यान देंगे ।मैंने मजाकिया अंदाज में पूछा कि आप भी व्याख्यान देंगे क्या ,जो तीस रुपये खर्च करके ,पाँच घंटे का सत्यानाश करके इतना बड़े कार्यक्रम में जा रहे हैं ।महोदय जी ने मुँह लटकाते हुए कहा ,"अरे नहीं हम कहाँ " ,हम तो बस व्याख्यान सुनने जा रहें हैं और कुछ लोगों से मुलाकात होगी तो अच्छा लगेगा । मैं साहित्यकार की इस संतुष्टि पर अवाक् रह गया । ऐसा महान साहित्यकार जो केवल व्याख्यान सुनकर संतोष कर लेगा किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं था । मैंने मन ही मन सोचा ये इनका महाकाव्य किसी व्याख्यान का ही नतीजा है,भगवान जाने अब भविष्य में ये और क्या गुल खिलाएंगे ।
मैं भी टाइम पास कर रहा था इसलिए बात आगे बढ़ाया कि आप को अच्छा लगेगा कि महान साहित्यकारों के बीच आप कुछ अपनी न ठेल पाएं तो । उन्होंने बोला भाई यह तो मौके की बात है,अगर जरा मौका मिल गया तो चुप थोड़े ही रहूँगा,कुछ नहीं तो माइक के सामने जाकर एक फोटो तो खिंचवा ही लूँगा ,इसके लिए कौन रोकेगा । इन महोदय की असली बात मेरी समझ अब आयी ,उन्होंने फिर बोले कि भाई इससे पहले भी कई कार्यक्रमों में गया हूँ ,कहीं मौका नहीं मिलता ,मौका छिनना पड़ता है। हम ऐसे ही इतने महान थोड़े ही हुए हैं । फेसबुक पर रोज फोटो अपडेट करता हूँ तो पोज देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं ।हिंदी के साहित्यकार फर्राटा अंग्रेजी बोलने लगे कि बड़ी माई अचीवमेंट इज माई फेसबुक प्रोफाइल पेज,गो एन्ड सी । लोग मुझे कमेंट करते है,लाइक करते हैं,कहते हैं कि बड़े साहित्यकार हो गए हो ,बस और क्या चाहिए । किसको पता कि कार्यक्रमों में क्या होता है ।बस फोटो अच्छी आनी चाहिए ,तो भी बड़े बड़े साहित्यकारों के साथ । फिर तुम भी बड़े हो जाओगे,हम ऐसे बड़े थोड़े ही हुए हैं । उनकी बात ख़त्म हुई और मेरा स्टेशन आ गए । मैं भी नमस्कार करते हुए मेट्रों से उतर गया यह सोचते हुए कि आजकल तो साहित्यकारों की उपलब्धि ही बदल गयी है ,बस फोटों खिंचवाना है,फेसबुक प्रोफाइल चमकना चाहिए,बाकी कौन देखता है ।
—-विनोद पांडेय